जातीय जनगणना को लेकर असमंजस बरकरार, केंद्र-राज्य में चल रहा तकरार

Original Content Publisher  jansatta.com -  2 yrs ago

जाति के आधार पर जनगणना को मंजूरी देकर बिहार सरकार ने पूरे देश में एक नई बहस छेड़ दी है। जनगणना की कवायद 2021 में केंद्रीय स्तर पर होनी थी, लेकिन कोविड संक्रमण के चलते फिलहाल इस पर कोई फैसला नहीं हो सका है। इस बीच कई राज्यों में जाति आधारित जनगणना की मांग तेज हो गई और बिहार सरकार ने इसमें कदम रखा।  ऐसे में राज्यों के संवैधानिक अधिकारों पर सवाल खड़ा हो गया है। कि क्या अब केंद्र और राज्य के बीच विवाद का कोई नया आधार तैयार किया जा रहा है? महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या कोई राज्य केंद्र के बाहर जनगणना कर सकता है? क्या इससे पहले किसी राज्य ने ऐसा किया है?

कर्नाटक मॉडल का तर्क---

बिहार में जाति जनगणना के दौरान कर्नाटक मॉडल का जिक्र किया जा रहा है। वर्ष 2014 में कर्नाटक में जाति जनगणना का निर्णय लिया गया था। लेकिन विरोध शुरू होने के बाद इसका नाम बदलकर 'सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण' कर दिया गया। इसकी रिपोर्ट भी 2017 में आई थी, लेकिन इसे आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। तब कांग्रेस की सरकार थी और सिद्धारमैया मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार ने अप्रैल-मई 2015 में सर्वेक्षण शुरू किया था। इसमें 1.6 लाख लोगों को लिया गया था और 1.3 करोड़ घरों में सर्वेक्षण किया गया था।

इसके लिए राज्य सरकार ने 169 करोड़ रुपये खर्च किए। इस काम को डिजिटाइज करने की जिम्मेदारी भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड को दी गई थी। कर्नाटक के बाद अब बिहार ने जाति जनगणना कराने का फैसला किया है। वहां बीजेपी समेत सभी नौ राजनीतिक दल इसके पक्ष में हैं।  जनगणना के लिए नौ महीने का समय दिया गया है। इसमें पांच सौ करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। फरवरी 2023 तक जनगणना का काम पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।

जनगणना और राज्य

सवाल उठता है कि क्या कोई राज्य जनगणना कर सकता है? लेकिन यह केंद्र सरकार पर निर्भर करेगा कि वह रिपोर्ट को स्वीकार करती है या नहीं। मौजूदा दौर में केंद्र सरकार ने बार-बार जाति जनगणना का खंडन किया है। हालांकि बिहार में बीजेपी की गठबंधन सरकार चला रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बार-बार अपनी बात रखी। बिहार विधानसभा में पिछले चार साल में दो बार जाति जनगणना पर प्रस्ताव पास किया जा चुका है।  केंद्रीय स्तर पर 2021 की जनगणना पिछले साल ही शुरू होनी थी, लेकिन कोविड संक्रमण फैलने के कारण इसे शुरू नहीं किया जा सका।  माना जा रहा है कि इसे इसी साल शुरू किया जाएगा, लेकिन अभी तक इसकी लॉन्चिंग को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी नहीं आई है।

अब तक के आंकड़े कैसे---

भारत में वर्ष 1951 से 2011 तक प्रत्येक 10 वर्षों में जनगणना कार्य किया जाता रहा है। प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की गणना अलग-अलग दी जाती है, लेकिन अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के लिए नहीं। हालाँकि, 1931 तक भारत में होने वाली जनगणना निश्चित रूप से जाति जनगणना पर आधारित थी। 1941 में, जाति के आधार पर आंकड़े एकत्र किए गए लेकिन प्रकाशित नहीं किए गए। मंडल आयोग ने अनुमान लगाया था कि देश में ओबीसी की आबादी करीब 52 फीसदी है। कुछ अन्य इसका अनुमान राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आधार पर लगाते हैं, जबकि राजनीतिक दलों का लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों में अलग-अलग अनुमान है।

क्या है केंद्र सरकार का स्टैंड----

केंद्र सरकार ने कई मौकों पर स्पष्ट किया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को छोड़कर जनगणना को जाति आधारित नहीं रखा जाएगा। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा और राज्यसभा में सरकार की ओर से बयान दिए हैं। 2010 में, यूपीए शासन के दौरान, तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को 2010 की जनगणना में जाति और समुदाय आधारित डेटा शामिल करने के लिए एक पत्र लिखा था।

1 मार्च 2011 को तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में कहा था कि अधिक राज्यों में ओबीसी की अपनी सूची है। कुछ राज्यों में ओबीसी सूची है और कुछ के पास नहीं है और उनके पास सबसे पिछड़े वर्ग की सूची भी है। खंड के महापंजीयक ने कहा था कि इस सूची में कुछ नई और कुछ समाप्त श्रेणियां हैं। उदाहरण के लिए, अनाथ और बेसहारा बच्चे। कुछ जातियां एससी और ओबीसी दोनों सूचियों में पाई गई हैं। ऐसे कई सवाल उठाए गए, जिन पर गौर करने के लिए मंत्रियों की एक कमेटी बनाई गई।

पहली जनगणना--

वर्ष 1872 में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड मेयो के आदेश पर देश में पहली जनगणना हुई थी। उसके बाद यह हर 10 साल में किया जाता था। हालाँकि, भारत की पहली पूर्ण जनगणना 1881 में आयोजित की गई थी। वर्ष 1949 से, यह भारत सरकार के गृह मंत्रालय के तहत भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त द्वारा संचालित की जाती है। 1951 के बाद सभी जनगणनाएं 1948 के जनगणना अधिनियम के तहत की गईं। भारत की जनगणना 2011 तक 15 बार आयोजित की जा चुकी है।

होल्ड पर रिपोर्ट----

यूपीए शासन के दौरान मंत्रियों की समिति की कुछ बैठकों के बाद, केंद्र सरकार ने सामाजिक, आर्थिक और जाति के आधार पर जनगणना करने का फैसला किया। तब ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी गरीबी उन्मूलन और आवास मंत्रालय के तहत शहरी क्षेत्रों में 4893,60 करोड़ रुपये की लागत से सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना शुरू की गई थी। इसने जाति के आंकड़ों को रखा।  

क्या कहते हैं जानकार--

हमें यह पता ही नहीं कि भारत में ओबीसी की कितनी जातियां हैं, उन जातियों के आंकड़ों की तो बात ही छोड़िए। कई छोटी जातियां हैं, कई खानाबदोश समूह हैं, जिनका ध्यान जनगणना में नहीं रखा जाता।

  • अंजलि साल्वे वितनकर, अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता

सामाजिक, आर्थिक, जातिगत गणना वाली कमेटी (एसईसीसी) के आंकड़े सामने नहीं आए। उन आंकड़ों को लेकर सरकार चुप है। एसईसीसी के आंकड़ों के वर्गीकरण और प्रकाशन को लेकर कभी दिशानिर्देश नहीं जारी किया गया।

  • एम विजयन उन्नी, पूर्व जनगणना आयुक्त


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